Madhu varma

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लेखनी कविता -रूपांतर - जगदीश गुप्त

रूपांतर / जगदीश गुप्त


गिरती हुई धारों को
तेज़ हवा के झोंके
फुहारों में बदल देते हैं,

दृश्य से परे
देर तक लहराती रहती हैं,
धारों को काटती हुई फुहारें
और फुहारों को काटती हुई धारें

आँख के आगे
हर तरफ़ छा जाता है,
पानी का रूप भी,
रूपांतर भी ।

भीग जाता है,
त्वचा का वन भी,
वनांतर भी ।

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